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मैनहटन-२

सितम्बर की उमस भरी रात में 'मैनहटन' परेशान सा लग रहा है! मैं जब भी रात में अपने कमरे की खिडकी से बाहर देखता हूँ तो 'मैनहटन' को जान-बूझकर नज़रअंदाज़ करता हूँ. हाँ, कभी-कभी कनखियों से निहार लिया करता हूँ. अगर 'हडसन' के साथ बातें करने में मग्न हुआ तो वह भी मेरी तरफ़ ध्यान नहीं देता. मगर आज दिन भर सूरज की किरणों का ताप झेलकर थकी-हारी 'हडसन' 'मैनहटन' की ओर पीठ करके लेटी हुई है उस मज़दूर औरत की तरह जो दिन भर कडी धूप में सिर पर ईंटें ढोने के बाद कमर सीधी करते ही ऊँघने लगती है. शायद इसीलिए 'मैनहटन' बौखलाया सा लग रहा है. मैं शायद बताना भूल गया, पिछले कुछ महीनों में इतनी तो जान-पहचान हो गई है कि 'मैनहटन'अब मुझे 'इन्टीमिडेट' नहीं करता. इसी वजह से अब ज़्यादातर खुली रहने लगी है मेरे बेडरूम की खिडकी. क्या पता आ ही बैठे वह कुहनी टेककर मेरी खिडकी पर. बातें तो बहुत सारी करनी है 'मैनहटन'से, पूछने हैं कई सवाल जानना है कईयों का हाल. शायद बता ही दे वो उस बुढिया की कहानी जिसका 'मेडन लेन' की दुकानों की सीढियों पर रैन-बसेरा है. शायद पत