घुसपैठ

ब्लॉग तैयार किए हुए लगभग दो महीने हो गए हैं. कस्बाई मन खुद को ब्लॉगिस्तान की सरहद पर दो महीनों से 'नो मेन्स लैण्ड' में पार्क किए हुए था.आगे बढने को तैयार ही न हो.'नो मेन्स लैण्ड' में खडे होने के अपने फ़ायदे हैं. ना पासपोर्ट की झंझट, ना वीज़ा का लफडा और ना नागरिकता की चिंता.वी आइ पी अंडरवियर बनियान की तरह ये भी 'आराम का मामला है'.

पिछले दो सालों से लिखना ऐसे छूट गया है कि उंगलियों ने दीवार पर सिन्दूर से 'शुभ-लाभ','श्री गणेशाय नम:' या 'श्री लक्ष्मीजी सदा सहाय' तक नहीं लिखा.रचनाधर्मिता से अवैध सम्बन्ध रहे हैं मगर अब मुद्दत हो गई है यार को मेहमाँ किए हुए. न कोई नाजायज़ सन्तानें ही हुईं रचनाधर्मिता से, जो फिर मेल करा दें.

मगर अभिनव पीछे पडे रहते हैं कि लिखो (और पोस्ट भी करो). पिछले महीने रचनाधर्मिता से रास्ते में निगाहें मिलीं, घर पहुँचकर दौरा पडा, उबकाई हुई और लैपटाप पर कविता टपक पडी.अब अभिनव लगातार लगे रहे कि कविता ब्लॉग पर पोस्ट करो और कस्बाई मन नित नए बहानों के शिखण्डियों की सेना खडी करता रहा.पिछले रविवार जब अल्टिमेटम मिला कि एक हफ़्ते में यह काम न हुआ तो कविता 'निनाद गाथा' पर पोस्ट कर दी जाएगी, तब कहीं कस्बाई मन 'नो मेन्स लैण्ड' से कँटीली बाड फाँद कर ब्लागिस्तान की धरती पर घुसपैठियों की तरह कूदने को तत्पर हुआ.

मैनहटन-१

मेरे बेडरूम की खिडकी से
'मैनहटन' नजर आता है,
अपनी गरिमा से बह्ती हुई
'ह्डसन'
जिसके दूसरे छोर पर खडा
'मैनहटन'
अपनी आकाश से गाली-गलौच करती
अट्टालिकाओं के साथ
मुझे
मुँह में सिगार दबाए,
रेशमी स्लीपिंग रोब पहने,
फिल्मी नायिका के
उस रौबदार बाप जैसा लगता है
जो कहना चाहता है,
'मेरी बेटी का पीछा छोडने की तुम क्या कीमत लोगे?'
मैं अधिक समय तक उससे नजरें नहीं मिला सकता
घबराकर आँखें नीची कर लेता हूँ.
बेवकूफ़ होती हैँ
खिडकियाँ
जो चाह्ती हैं
दिखाना
बाहर का दृश्य
जस का तस.
बचपन में
मेरे घर की खिडकी से
कारखाना
दिखाई देता था
'रामायण-महाभारत' के
राक्षसों-दानवों की तरह
डरावने(?) स्टीम इंजन
काले धुँए के बादल छोडते हुए
चार-बारह,बारह-आठ का
साइरन बजते ही
तेल-धूल-कोयले से
सने कपडों में
ड्यूटी पर जाते
या बाहर आते
मजदूर.
खिडकियाँ
क्यों होती हैं
इतनी मुँहजोर?
जो उस पार की चीजों को
इस पार
ले आना चाहती हैं.
'हडसन' के पानी पर
तैरता जहाज
धुँआ बिल्कुल नहीं छोडता,
बिल्कुल भी नहीं
मगर लगता है
कई बार
जैसे जहाज
कालिख उगलने वाले
दैत्यरूपी
इंजन में बदल जाएगा
और
बेडरूम की खिडकी का काँच
तोडकर
मेरे सिरहाने
आ बैठेगा
और करेगा
मुझसे
वो सारे सवाल
जिनके जवाब
ढूँढने के लिए
मुझे
काले धुएँ से गुजरकर
मालगाडी
के उस डिब्बे पर
चढना होगा
जिसमें भरा है
टनों
कोयला.
पता नहीं क्यों
मुझे कभी कभी
धोखेबाज़ लगती हैं
खिडकियाँ.
जब बादल छा जाते हैँ
तो
मैनहटन
उसमें ऐसे डूबता सा लगता है
जैसे
किसी शरारती बच्चे ने
तस्वीर की
इमारतों की ऊपरी मंज़िलों पर
मटमैला रंग छलका दिया है.
बादलों के धुंधलके में
बडा कमज़ोर और बीमार सा
लगता है
मैनहटन,
मैं ज़रा नार्मल होने लगता हूँ
मगर जानता हूँ मैं
कि जब हवा
राम-बुहारी बन
बादलों को झाड देगीऔर
सूरज वैकेशन से लौट आएगा
तब मैनहटन फ़िर
ग़ुरूर से
दमकने लगेगा
मुझे नीचा दिखाने के लिए.
'एम्पायर स्टेट' की चोटी पर
जलता बुझता
बिजली का बल्ब
मुझे चिढाने लगेगा,
अपनी हज़ारों वाट रोशनी
के साथ
मैनहटन
पूरी रफ़्तार से
मेरी तरफ़
आता दिखाई देगा
और
मैं घबराक्रर
'विन्डो-ब्लाइंड'
नीचे गिरा दूँगा.
सौंदर्य बोध
निहायत ही
घटिया होता है
खिडकियों का
और मेरे बेडरूम की खिडकी के पास
तो सौंदर्य बोध है ही नहीं.

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